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    आप सुन रहे है जनसम्पर्क गाथा का सीधा प्रसारण ये उज्जैन केंद्र है ….?

    जनसंपर्क गाथा …..
    आप सुन रहे है जनसम्पर्क गाथा का सीधा प्रसारण ये उज्जैन केंद्र है ….?

    जनसम्पर्क का हीरो ही विलन निकला…?

    अंदरखाने की राजनीति का कच्चा–चिट्ठा*

    हवा महल में आपका स्वागत है और आज की कहानी है …..जनसम्पर्क विभाग जो इन दिनों किसी शास्त्रीय नाटक की तरह नहीं, बल्कि एक बदनाम सस्पेंस-थ्रिलर की तरह चल रहा है जहाँ किरदार सबके सामने हैं, पर रोल किसी को नहीं पता। हड़ताल, लेटरहेड, आदेश, अध्यक्ष, उपाध्यक्ष सब सिर्फ नाम मात्र हैं। असली खेल तो पर्दे के पीछे चल रहा है, और निर्देशक वही है, जो हीरो भी है और विलन भी। जनसम्पर्क विभाग का यह सबसे बड़ा ट्रैजिक-ह्यूमर है कि जिसकी चालें समझने में सब माहिर समझे जाते थे, वही अब सबकी बुद्धि का मज़ाक उड़ाते हुए पूरी स्क्रिप्ट लिख रहा है।

    कहानी शुरू होती है उस हड़ताल से, जो एकदार सुबह को शुरू की जाती है और उसी शाम बिना अनुमति वापस भी ले ली जाती है। हड़ताल का उद्देश्य क्या था? अधिकार? असहमति? कर्मचारी हित? कत्तई नहीं। यह पूरी हड़ताल राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन का लघु-महाभारत थी। और जिस अध्यक्ष के नाम पर हड़ताल का डंका बजा, उसी अध्यक्ष को पता तक नहीं कि हड़ताल कब हुई, किसने की, किसने वापस ली, और किस लेटरहेड पर उनके नाम को गायब कर दिया गया। यह विभाग सरकारी है या किसी निजी कंपनी का डेमो-प्रोजेक्ट समझना मुश्किल।

    सुबह जैसे ही लेटरहेड सुबह की धूप में चमका, अध्यक्ष का नाम रहस्यमय ढंग से शयम तक गायब। लेटरहेड भी सोच रहा होगा“भाई, कब से मैं तुम्हारे लिए उठापटक झेल रहा हूँ? आज मैं ही बदनाम, और नाम वही जो बैठक में थे ही नहीं!” जो तथाकथित अध्यक्ष दिखाए गए थे, वे तो भोपाल में मौजूद ही नहीं थे अवकाश पर थे। और असली अध्यक्ष? वे तो उज्जैन में बैठे हैं, उनसे कोई फोन तक नहीं किया गया। विभाग की इस ‘प्रबंध कला’ को क्या नाम दिया जाए वीरतापूर्वक कायरता या कायरतापूर्वक वीरता?

    पर असली खेल चौकड़ी का है। वही चौकड़ी जिनके चेहरे पर मासूमियत और भीतर राजनीति का गाढ़ा रंग। जिन्होंने चक्रव्यूह रचा, अभिमन्यु जैसे सीपीआर को फँसाया, उनसे आदेश निकलवाए, और फिर वही आदेश आधार बनाकर विभाग में आग लगा दी। कहानी इतनी साफ है कि बच्चे भी समझ लें कि नीयत दूध जैसी थी ही नहीं; मकसद था विभाग में अपना ‘राजतिलक’। आदेश करवाना था, करवाया। हड़ताल चाहिए थी, करवाई। नकली लेटरहेड चाहिए था, छपवाया। और शाम होते-होते पांडव कौरव बनकर अपने ही नाटक का पटाक्षेप कर गए।

    जनसम्पर्क विभाग का यह इतिहास में दर्ज होने वाला सबसे शर्मनाक अध्याय है कि कर्मचारियों की हड़ताल किसी मुद्दे के लिए नहीं बल्कि कुछ लोगों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के लिए खेली गई। नेता, अफसर, कर्मचारी सबको पता है कि यह हड़ताल एक सच्ची हड़ताल नहीं थी यह एक ‘स्टारकास्ट’ थी। निर्देशक वही, स्क्रिप्ट वही, और किरदार वही जो पर्दे पर मासूम और पर्दे के पीछे चतुर। और अब आते हैं उस किरदार पर, जो इस पूरी कहानी का केंद्रबिंदु है जनसम्पर्क विभाग का वह अधिकारी जो राजनीति, प्रबंधन और अवसरवाद इन तीनों का मिश्रण है। वह इतना बड़ा खिलाड़ी है कि विभाग में उसकी चालें कोई पकड़ नहीं पाता। वह सबसे पहले अपर संचालक की कुर्सी पर राज्य प्रशासनिक सेवा का कब्ज़ा करवाने वाले धड़ों में शामिल था। और वही बाद में उसी नियुक्ति को लेकर सबसे ज्यादा शोर मचाने वालों में भी शामिल दिखा। यह किरदार कैमरे में मुस्कुराता है, मीटिंग में सहमति में सिर हिलाता है, और बाहर आकर विरोध का झंडा भी उठाता है वही व्यक्ति, दो चेहरे। हीरो भी वही और विलन भी वही।

    उसकी सबसे बड़ी ताकत यह है कि वह हर पक्ष का विश्वस्त है। कर्मचारी उसे अपना नायक मानते हैं, अधिकारी उसे समझदार मानते हैं, और मंत्री मंडल में उसकी छवि ‘समस्या हल करने वाले’ की है। पर असलियत? समस्या वही पैदा करता है। वह हर लड़ाई को इस तरह मोड़ देता है कि अंत में फैसला चाहे जो हो, फायदा हमेशा उसका ही होता है। अगर विवाद बढ़ता है तो वह बीच में ‘समझौता कराने’ वाले संत के रूप में उभर आता है। अगर विवाद खत्म हो जाता है तो वह ‘सफल रणनीतिकार’ बन जाता है। और अगर विवाद असफल होता है, तो वह ‘पीड़ित पक्ष’ बन जाता है। हर स्थिति में उसकी भूमिका तय वह जीतता ही है।

    हड़ताल की इस पूरी फिल्म में भी उसके हाथ साफ़ नज़र आते हैं। शुरुआत उसने की, हवा उसी ने दी, फैसले उसी ने लिखे, और अंत में वापस लेने की पटकथा भी उसी ने गढ़ी। कर्मचारी सोचते रहे कि वे आवाज़ उठा रहे हैं। अधिकारी समझते रहे कि स्थिति नियंत्रण में है। असली नियंत्रण तो इस महानायक के पास था जो खुद को हीरो दिखाता रहा और विलन की तरह चाल चलता रहा।

    विभाग में कर्मचारियों की नाराज़गी अब सिर्फ आदेशों या नियुक्तियों को लेकर नहीं है। नाराज़गी उस राजनीति से है जो अब विभाग को विभाग नहीं रहने दे रही। यहाँ हर आदेश, हर मीटिंग, हर लेटरहेड सत्ता संघर्ष का हथियार बन चुका है। और इस संघर्ष में सबसे बड़ा नुकसान विभाग का हो रहा है। कामकाज ठप, छवि धूमिल, और कर्मचारी–अधिकारी दोनों ही एक-दूसरे पर शक की नज़रों से देख रहे हैं।

    जनसम्पर्क विभाग कभी राज्य की आवाज़ हुआ करता था। मुख्यमंत्री की योजनाओं को जनता तक पहुँचाने वाला माध्यम। लेकिन आज विभाग खुद किसी नाटक का पात्र बन गया है। आदेशों की सत्ता, लेटरहेड की राजनीति, और पदों की खींचतान पूरी व्यवस्था खुद एक विज्ञापन बन चुकी है और इस विज्ञापन की टैगलाइन यही है “जनसम्पर्क में हीरो वही है… पर विलन भी वही है।”

    कहानी अभी खत्म नहीं हुई। अगली कड़ी में और चेहरे गिरेंगे, और सच्चाइयाँ सामने आएँगी। बस इंतज़ार कीजिए जनसम्पर्क का महाभारत अभी शुरू हुआ है।

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